नागौर के कुचेरा गाँव से संबंध रखने वाले रिछपाल सिंह मिर्धा का नाम ज़िले की राजनीति में पुराना और परिचित है। मिर्धा परिवार की जड़ें किसान-समुदाय में गहरी रही हैं और रिछपाल ने भी अपनी राजनीतिक समझ और ज़मीनी काम से लोगों का विश्वास हासिल किया।
उनकी चुनावी यात्रा काफी दिलचस्प रही। 1990 में उन्होंने जनता दल से जीत हासिल की। उसके बाद 1993 में कांग्रेस के साथ ऊपर आए। 1998 में उन्होंने निर्दलीय होकर मैदान में उतरकर लगभग 8,810 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की — यह जीत उस समय उनके स्थानीय प्रभाव और काम का साफ़ प्रमाण थी। 2003 में फिर से कांग्रेस के टिकट पर वे विजयी हुए। लगातार चार बार विधानसभा पहुँचना किसी भी क्षेत्रीय नेता के लिए आसान काम नहीं होता; इसने साफ़ कर दिया कि वे देगाना-नागौर के मतदाताओं के बीच भरोसेमंद रूप से खड़े रहे।
वर्तमान दौर में रिछपाल मिर्धा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का रुख किया — यह कदम स्थानीय सत्ता-समात और राजनीतिक समीकरणों में नया तनाव लेकर आया। उनके हाल के बयानों और सोशल-मीडिया पर चलने वाले कुछ वीडियो ने भी चर्चा बढ़ा दी है। समर्थक इसे बदलते राजनीतिक परिवेश का हिस्सा बता रहे हैं, जबकि आलोचक उनकी नीतियों और फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं। कुल मिलाकर, ये परिवर्तन नागौर की राजनीति में नई बहस और चर्चाओं को जन्म दे रहे हैं।

मिर्धा परिवार का नाम राजस्थान के ग्रामीण और कृषि-जनित राजनीतिक मुद्दों से जुड़ा रहा है। अक्सर लोग उन्हें किसान संवेदनशील और ग्रामीण लोकहित के मुद्दों पर मुखर पाते हैं। रिछपाल की उपलब्धियाँ — साथ ही कभी-कभी आने वाले विवाद — यह दर्शाते हैं कि पारिवारिक प्रतीक और व्यक्तिगत नेतृत्व दोनों ने उनकी राजनीति को आकार दिया है।








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